नौकरी: मजबूरी या जरूरत?

 


नौकरी: मजबूरी या जरूरत? एक आम इंसान की कहानी

जब बच्चा स्कूल जाता है, तो उससे अक्सर पूछा जाता है — "बड़े होकर क्या बनोगे?" कोई डॉक्टर कहता है, कोई इंजीनियर, कोई अफसर। पर बहुत कम बच्चे कहते हैं, “मैं नौकरी करूंगा।”
असल में, नौकरी एक सपना नहीं, एक वास्तविकता है — कभी मजबूरी, कभी जरूरत, और कभी प्राप्ति का साधन। देश में  सरकारी सेवा में कार्यरत लोगों की संख्या 9 प्रतिशत है और 12 प्रतिशत निजी रोज़गार में हैं। यह जानकारी ILO की वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट और सोशल आउटलुक ट्रेंड्स रिपोर्ट 2025 में दी गई है। भारत में 2024 में कार्यशील जनसंख्या 2.55 करोड़ लोग थे। ILO के मुताबिक, 2025 में यह आंकड़ा 2.61 करोड़ हो सकता है । 

नौकरी करना: मजबूरी या जरूरत?

  • मजबूरी तब बनती है :- जब परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो। शिक्षा अधूरी रह जाए, कोई हुनर न हो, और पैसा कमाना ही एकमात्र लक्ष्य रह जाए,इस स्थिति में नौकरी करना मजबूरी बन जाती है । उस वक्त सिर्फ और सिर्फ नौकरी पर निर्भर रहता है । व्यक्ति फिर यह नहीं देखता नौकरी कैसी, है जैसी भी भी हो बस वह करना चाहता है । व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने की वजह से नौकरी करना उसके लिए एक मजबूरी बन जाती जाती है । 

  • जरूरत तब बनती है :- जब इंसान को जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करनी हों — रोटी, कपड़ा, मकान, बच्चों की पढ़ाई, बीमार माँ-बाप का इलाज इसके अलावा और भी जो जरूरतें होती है उनको पूरा करने के लिए नौकरी जरूरत बन जाती है । नौकरी में  व्यक्ति की इतनी आय भी नहीं होती की वह अपनी हर जरूरतों को पूरा कर सके । इसलिए वह अपनी जरूरतों को किस्तों के जरिए पूरा करने लग जाता है । व्यक्ति मकान , टीवी , फ्रिज, कार आदि किस्तों पर ले लेता है फिर ऐसे हालत में व्यक्ति चाहकर भी नौकरी नहीं छोड़ सकता । इस स्तिथि में नौकरी करना उसकी मजबूरी भी ओर जरूरत भी भी बन जाता है । 

  • नौकरी ना तो मजबूरी होती है ना ही जरूरत :- कुछ के लिए नौकरी ना तो मजबूरी होती है ना ही जरूरत होती है बल्कि एक  पहचान भी होती है — आत्मसम्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा और अपने सपनों को जीने का माध्यम। वह नौकरी को अपना शौक, अपना कर्तव्य समझकर करते है । उन्हे लगता है की इस नौकरी के सहारे उनकी जरूरते पूरी होने के साथ साथ उन्हे समाज मे जो सम्मान मिल रहा है वह इस नौकरी के बदले ही मिल रहा है । पर देखा जाए तो इस श्रेणी में वह लोग आते है जिनके पास उच्च शिक्षा या कोई खास हुनर होता है, इसकी वजह से उन्हे उनकी योग्यता और हुनर के अनुसार वेतन भी मिलता है जिस से वह संतुष्ट होते है । इसलिए एक नौकरी किसी के लिए "मजबूरी" है, तो किसी के लिए "जरूरत" तो किसी के लिए "सपना"

  • आसान भी नहीं होता है नौकरी करना :- वैसे भी नौकरी करना आसान  नहीं होता। नौकरी में इंसान को  कभी-कभी अपनों से दूर हो कर भी नौकरी करना पड़ता  है। अपना घर-गांव छोड़ो। फिर अपने ही घर गांव वापस जाने के लिए दूसरों से इजाजत लेना पड़ता है तब जाकर अपनों से मिलना नसीब होता है ।  अगर घर गांव छोड़कर अन्य जगह नौकरी कर रहे हैं तो इस बात पर भी कोई गारंटी नहीं होती है कि कौन सा त्योहार परिवार के साथ मनाएंगे  तो कौन सा त्योहार परिवार  के बिना मनाएंगे । कभी-कभी नौकरी करने वालों को इतने समय तक नहीं मिल पाता है कि वह अपने परिवार के साथ मिल कर दिवाली के दो-चार दिए जला सके ना ही होली पर अपनो को लाल पीला  सके। ऐसे हालात में तारीफ  करने वाला समाज भी बुरा भला कहने  लगता है। कहता  हैं पारंपरिक त्योहारों को अपने परिवार के साथ ना मनाकर नौकरी को महत्व देने वाला बताकर  सम्मान देने वाला समाज भी अपमानित करने लगता है । नौकरी करने वाले की स्थिति एक नौकरी करने वाले के अलावा कोई नहीं  समझ सकता है।

  • बहुत मुश्किल होता है सीमित आय में संतुलन बना कर रखना :- एक नौकरी करने वाला अपनी सीमित आय के हिसाब से ही अपने खान-पान रहन-सहन का संतुलन बना कर रखें | वह अपनी सीमित आय के हिसाब से सपने  देखता  है। अपनी  आय से ज्यादा बड़े  सपने भी नहीं देख सकता । अगर सपने  भी देख भी ले तो पूरा नहीं कर पाता है । यहां तक ​​कि वह अपने खर्चों को कम कर के कुछ भी बचा नहीं पाती है । भले ही बेचारे  की तन्ख्वाह महीने की शुरुआत में आती है लेकिन माहीना खत्म होने से पहले ही  उसकी पूरी तन्ख्वाह खत्म हो जाती है । कभी-कभी तो बेचारा दूसरों से मांगने पर मजबूर हो जाता है ।  अब वह लोगों को कैसे बताए की  उसकी तनख्वाह आने का सिर्फ एक ही रास्ता होता है पर उसके जाने के कई रास्ते होते हैं ।  समाज को हम सभी को यह जरूर लगता है कि नौकरी करने वालों की जिंदगी मस्त होती है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है । उनकी  तनख्वाह आने से पहले उनके जाने का रास्ता तय हो जाता  है। समाज को भलेही  लगता है कि नौकरी करने वालों के जीवन में सुख शांति होती है, लेकिन वह एक सीमित आय में खुद का संतुलन  कैसे कायम रखता है यह तो वो ही जानता है। समाज के किसी व्यक्ति ने अगर कुछ पैसे मांगे और उसे ना दे तो दो-चार बात  सुनाएगा। भलेही वह अपनी आय के व्यय  का पूरा विवरण क्यों न बात दे फिर भी लोग उसकी बात पर विश्वास नहीं करेंगे। समाज के आम लोग शायद ही नौकरी वाले की स्थिति समझ जायेंगे।

  • आज के युवा के लिए नौकरी जरूरी क्यों ? यह युवाओं की मानसिकता पर निर्भर करता है आज के युवाओं की मानसिकता के हिसाब से नौकरी रिस्क फ्री लगती है ना लाभ-हानी का डर ना किसी प्रकार का दबाव 8 - 10 घंटे काम करो फिर उसके बाद आराम । ज्यादातर युवा अपने निजी व्यवसाय के बारे में इसलिए भी नहीं सोचते की व्यापार की कोई ग्यारंटी नहीं होती है उसमे सफलता मिलेगी भी या नहीं, लाभ-हानी का डर और नौकरी मे ये सब नहीं होता है 25 /26 दिन काम करो ओर महीने पर तनख्वाह लो । नौकरी में आय भी सीमित है और व्यापार मे आय की कोई सीमा नहीं है किसी दिन फायदा हुवा तो किसी दिन नुकसान भी है बस इसी मानसिकता की वजह से युवा खुद की निजी व्यवसाय पर ना जोर देकर नौकरी को महत्व देते है । समाज भी नौकरी वाले व्यक्ति को सम्मान देता है । साथ  हि  साथ समाज  उसे  संस्कार वान   के  साथ  साथ  जिम्मेदार  नागरिक  भी  समझने  लगता  है ।  समाज मे मान सम्मान बना रहे इस वजह से भी आजकल का युवा नौकरी को महत्व देने लगा है

  • युवाओं और समाज को नौकरी के प्रति मानसिकता बदली चाहिए :- मान सम्मान अपनी जगह , समाज अपनी जगह है , लेकिन खुद की आवश्यकतों का क्या ? खुद की जरूरतों का क्या ? जिस तरह नौकरी मे आपकी आय सीमित है उसी तरह आप अपनी आवश्यकताओं और जरूरतों को भी सीमित ही रख पाओगे । नौकरी में हमेशा आपके ऊपर समय की पाबंदी होती है । छुट्टी के लिए बॉस से इजाजत लो समय पर कार्य को पूरा करो । कार्य समय पर पूरा ना करो तो बॉस की डांट कार्य गलत हो तो डांट । और कई तरह की पाबंदियाँ होती है । साथ ही साथ समय का भी आभाव होने लगता है । 

एक आम नौकरीपेशा की ज़िंदगी कैसी होती है?

  1. सुबह की शुरुआत घड़ी से लड़ते हुए होती है। जल्दी उठना, ऑफिस के लिए तैयार होना, ट्रैफिक से जूझना — यही है रोज़ की शुरुआत।

  2. ऑफिस में दिनभर काम का दबाव, टारगेट्स, बॉस की डांट, मीटिंग्स का बोझ, और मन की शांति के लिए कभी फुर्सत नहीं।

  3. शाम को थक कर घर लौटते हैं, तो खुद से सवाल करते हैं — क्या मैं यही जिंदगी चाहता था?

  4. छुट्टियों का इंतज़ार, सैलरी का महीना, प्रमोशन की उम्मीद — सब इस चक्रव्यूह का हिस्सा है।

परिवार, सपने और जिम्मेदारियों के बीच एक नौकरीपेशा इंसान धीरे-धीरे खुद को खोता चला जाता है।


प्राइवेट और सरकारी नौकरी में भेदभाव क्यों होता है?

सरकारी नौकरी के फायदे:

  • नौकरी की स्थिरता (Job Security)

  • समय पर छुट्टियाँ और सीमित काम के घंटे

  • पेंशन, भत्ता, स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएँ

  • सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान

प्राइवेट नौकरी की सच्चाई:

  • काम का ज्यादा दबाव, पर कम सैलरी

  • कोई स्थायित्व नहीं — किसी भी समय निकाला जा सकता है

  • ओवरटाइम आम बात, पर एक्स्ट्रा पे दुर्लभ

  • निजी जीवन और मानसिक शांति पर प्रभाव

इसलिए समाज में आज भी "सरकारी नौकरी वाला" व्यक्ति ज़्यादा सम्मानित माना जाता है। यही भेदभाव की जड़ है

लेकिन क्या नौकरी ही सब कुछ है?

नौकरी ज़रूरी है, पर ज़िंदगी नौकरी से बड़ी है
कई लोग नौकरी से आगे बढ़कर अपने शौक को पेशा बनाते हैं — कोई लेखक बनता है, कोई यूट्यूबर, कोई व्यवसायी। आज की दुनिया में फ्रीलांसिंग, वर्क फ्रॉम होम, स्टार्टअप जैसे विकल्प भी हैं जो सिर्फ नौकरी पर निर्भर न रहने की प्रेरणा देते हैं।

निष्कर्स 

नौकरी करना न तो सिर्फ मजबूरी है, न सिर्फ जरूरत — यह एक वास्तविकता है जिसे हर इंसान अपने-अपने नजरिए से जीता है।
जरूरत है, कि हम एक-दूसरे की परिस्थितियों को समझें, भेदभाव की बजाय सम्मान दें — चाहे वो प्राइवेट सेक्टर में हो या सरकारी में।
और सबसे जरूरी — खुद की पहचान को सिर्फ नौकरी तक सीमित न रखें, अपने सपनों को जिंदा रखें। जब आपकी नौकरी जानी होती है तो वो किसी ना किसी वजह से चली ही जाती है अब नौकरी चाहे सरकारी हो या प्राइवेट । इसलिए इसलिए युवाओं को नौकरी करने के साथ साथ आत्मनिर्भर बनने की भी कोशिश करते रहना चाहिए । 

🌟 आपका क्या अनुभव है?

क्या आप प्राइवेट नौकरी कर रहे हैं या सरकारी? क्या आपको लगता है कि आपकी नौकरी आपकी पहचान है?
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