प्राकृति पूजक :- आदिवासी
आदिवासी संस्कृति: इतिहास, उत्पत्ति और भारत में इनकी विशेष भूमिका है
आदिवासी संस्कृति और इतिहास दिनों ही महत्वपूर्ण है । आदिवासी संस्कृति ,प्रकृति के साथ तालमेल , श्रम और सामुदायिक जीवन पर आधारित है । आदिवासी इतिहास भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है , जिसमे विभिन्न जनजातियों के संघर्ष और उनकी संस्कृति का सरक्षण शामिल है । आदिवासी समाज मानव सभ्यता की सबसे पुरानी परतों में से एक है। इनकी जीवनशैली, परंपराएँ, और धार्मिक मान्यताएँ आज भी प्रकृति के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं। आदिवासी न केवल मानव इतिहास के साक्षी हैं बल्कि संस्कृति, कला और पर्यावरण संतुलन के संरक्षक भी हैं। इन्हे प्रकृति से बहुत लगाव होता है यह प्रकृति को ही अपना आराध्य मानते है । आदिवासी लोगों प्रकृति प्रति इतना समर्पित होते है की या किसी ओर को प्रकृति के खिलाफ किसी प्रकार का खिलवाड़ नहीं करने देते है ना ही यह स्वयं किसी प्रकार प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते है ।
आदिवासी संस्कृति :
आदिवासी समुदाय प्रकृति के साथ एक सहज संबंध रखते है वे प्रकृति के संसाधनों का उपयोग तो करते है लेकिन इसका सम्मान भी करते है इन्हे प्रकृति से बहुत लगाव होता है यह प्रकृति को ही अपना आराध्य मानते है । आदिवासी लोगों प्रकृति प्रति इतना समर्पित होते है की या किसी ओर को प्रकृति के खिलाफ किसी प्रकार का खिलवाड़ नहीं करने देते है ना ही यह स्वयं किसी प्रकार प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते है ।
आदिवासी संस्कृति कितनी पुरानी है?
आदिवासी संस्कृति हजारों वर्षों पुरानी मानी जाती है। पुरातात्विक साक्ष्य और मानव विज्ञान के अध्ययनों के अनुसार, यह संस्कृति कम से कम 10,000 वर्षों से अस्तित्व में है। भीमबेटका (मध्यप्रदेश) की गुफाओं में मिले शैलचित्र, जो लगभग 30,000 वर्ष पुराने माने जाते हैं, आदिवासी जीवन की झलक आज भी देते हैं।
आदिवासियों की उत्पत्ति कहाँ से हुई?
आदिवासियों की उत्पत्ति पर कई सिद्धांत हैं:
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प्राकृतिक विकास सिद्धांत के अनुसार ये लोग भारत के मूल निवासी हैं और यहाँ के जंगलों, पहाड़ों और नदियों के पास निवास करते रहे।
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ऑस्ट्रिक और मंगोलॉइड जातीय समूहों से भी इनका संबंध जोड़ा गया है, जो दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका से भारत आए थे।
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डीएनए और मानवशास्त्रीय शोध बताते हैं कि भारत के आदिवासी दुनिया की प्राचीनतम मानव जातियों में से एक हैं, जिनकी वंशावली अफ्रीकी मानवों से जुड़ती है।
भारत की सबसे पुरानी आदिवासी जाति कौन सी है?
भारत में कई प्राचीन आदिवासी जातियाँ हैं, लेकिन इनमें से कुछ प्रमुख और अत्यंत प्राचीन जातियाँ हैं:
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संताल (Jharkhand, West Bengal)
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भील (Madhya Pradesh, Rajasthan)
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गोंड (Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Maharashtra)
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टोडा (Tamil Nadu – नीलगिरी हिल्स)
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नगास और अन्य पूर्वोत्तर की जनजातियाँ
इनमें से गोंड जाति को भारत की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी जनजातियों में माना जाता है। इनकी उपस्थिति प्राचीन भारत के कई ग्रंथों और अभिलेखों में पाई जाती है।
भारत में कितना क्षेत्र आदिवासियों से घिरा है?
भारत की लगभग 8.6% जनसंख्या (जनगणना 2011) आदिवासी है। भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्रशासित प्रदेशों में से कम से कम 20 में आदिवासी समुदाय निवास करते हैं।
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भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 15% हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से आदिवासी आबादी वाला क्षेत्र माना जा सकता है।
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"Scheduled Tribes Areas" भारत के पूर्वोत्तर, मध्य और पूर्वी राज्यों में फैले हुए हैं।
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आदिवासी बहुल राज्य: मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, राजस्थान, नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, त्रिपुरा।
आदिवासी समाज किसे अपना आराध्य मानता है?
अधिकांश आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक होते हैं। वे पेड़, नदियाँ, पहाड़, सूर्य, चंद्रमा, और जानवरों को देवता स्वरूप मानते हैं।
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वे किसी एक ग्रंथ या एक देवता में विश्वास नहीं करते, बल्कि स्थानीय देवी-देवताओं और पूर्वजों की पूजा करते हैं।
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उनके आराध्य प्रायः समुदाय विशेष के होते हैं, जिनके लिए विशिष्ट त्यौहार और अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं।
मध्यप्रदेश के आदिवासी किसे आराध्य मानते हैं?
मध्यप्रदेश में मुख्यतः भील, गोंड, बैगा, कोरकू जैसी जनजातियाँ निवास करती हैं। इनकी धार्मिक आस्थाएँ इस प्रकार हैं:
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गोंड समुदाय – अपने पूर्वजों और फरसा पेन, भूता देवता, और नरहरी देव की पूजा करते हैं।
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भील समुदाय – भिलोबा, माता देवी, और वन देवता को पूजते हैं।
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बैगा जनजाति – जादू-टोने और जंगल देवी की आराधना करते हैं।
इन समुदायों के लिए "जंगल ही मंदिर है और प्रकृति ही भगवान" की भावना सर्वोपरि होती है।
आदिवासी समाज ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक संघर्षों में कई महान योद्धा, क्रांतिकारी और जननायकों को जन्म दिया है। इन नायकों को आज भी आदिवासी समुदाय देवतुल्य मानकर आराध्य की तरह पूजते हैं। नीचे हम कुछ प्रमुख आदिवासी क्रांतिकारियों का विवरण दे रहे हैं, जिन्हें आदिवासी समाज अपने आराध्य पुरुष के रूप में मानता है:
🏹 प्रमुख आदिवासी क्रांतिकारी और उनके आराध्य स्वरूप
1. भगवान बिरसा मुंडा (1875–1900) – झारखंड
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परिचय: बिरसा मुंडा मुंडा जनजाति से थे। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ “उलगुलान” (महाविद्रोह) चलाया।
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योगदान: उन्होंने आदिवासी समाज को एकजुट किया, धर्मान्तरण के विरुद्ध संघर्ष किया, और ज़मींदारी प्रथा को चुनौती दी।
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आराध्य रूप: झारखंड और आसपास के आदिवासी उन्हें "धरती आबा" (धरती पिता) के रूप में पूजते हैं।
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आज: बिरसा मुंडा की जन्मतिथि (15 नवंबर) "झारखंड स्थापना दिवस" के रूप में मनाई जाती है।
2. टंट्या भील (1842–1889) – मध्यप्रदेश
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परिचय: टंट्या भील को मध्यप्रदेश के आदिवासी "टंट्या मामा" के नाम से जानते हैं। वह भील जनजाति से थे।
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योगदान: उन्होंने ब्रिटिश राज और ज़मींदारों से लोहा लिया और गरीबों में धन वितरित किया, इसलिए उन्हें आदिवासी रॉबिनहुड भी कहा जाता है।
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आराध्य रूप: आदिवासी समुदाय उन्हें लोकदेवता मानते हैं, कई स्थानों पर उनके मंदिर भी हैं (जैसे पातालपानी, इंदौर)।
3. रानी दुर्गावती (1524–1564) – गोंड जनजाति
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परिचय: रानी दुर्गावती गोंडवाना की शासक थीं। उन्होंने अकबर की सेना से वीरता से लोहा लिया।
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योगदान: वे आदिवासी महिला नेतृत्व का प्रेरणास्त्रोत हैं और उनके शौर्य की गाथा गोंड समाज में पीढ़ियों तक गायी जाती है।
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आराध्य रूप: गोंड समाज में उन्हें वीरांगना देवी की तरह पूजा जाता है।
4. शहीद वीर नारायण सिंह (1809–1857) – छत्तीसगढ़
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परिचय: सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।
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योगदान: उन्होंने अंग्रेजों से लड़ा और गरीबों में अनाज बाँटा, जिसके कारण अंग्रेजों ने उन्हें फाँसी दे दी।
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आराध्य रूप: छत्तीसगढ़ के आदिवासी उन्हें बलिदानी योद्धा और जननायक मानते हैं।
5. गुंडाधुर (1870–?) – बस्तर, छत्तीसगढ़
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परिचय: गुंडाधुर बस्तर क्षेत्र के एक प्रसिद्ध आदिवासी योद्धा थे।
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योगदान: उन्होंने 1910 में बस्तर विद्रोह का नेतृत्व किया और ज़बरदस्त प्रशासनिक साहस दिखाया।
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आराध्य रूप: बस्तर के आदिवासी उन्हें क्रांतिकारी देवता के रूप में स्मरण करते हैं।
6. सिद्धू और कान्हू मुर्मू – संथाल परगना, झारखंड (1855)
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परिचय: दोनों भाई संथाल जनजाति से थे और ब्रिटिश शासन व ज़मींदारी अत्याचारों के खिलाफ "संथाल विद्रोह" चलाया।
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योगदान: हजारों संथालों ने इनकी अगुआई में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी।
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आराध्य रूप: आज भी संथाल आदिवासी इन दोनों को देवताओं की तरह पूजा करते हैं।
निष्कर्ष
आदिवासी समाज न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर है बल्कि यह पर्यावरण संतुलन और मानवीय मूल्यों का जीवंत उदाहरण भी है। आधुनिकता की दौड़ में जब सब कुछ कृत्रिम होता जा रहा है, तब आदिवासी संस्कृति हमें प्रकृति से जुड़ने और जीवन के मूल्यों को समझने की प्रेरणा देती है।
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