"क्या कोचिंग मजबूरी है या मानसिक दबाव? जानिए भारत के छात्रों की सच्चाई"



 "कोचिंग की दौड़: आत्मविश्वास की कमी या सिस्टम की मजबूरी?"

आज भारत के लाखों विद्यार्थी कोचिंग संस्थानों की शरण में हैं। कहीं IIT-JEE की तैयारी, कहीं UPSC का संघर्ष, कहीं SSC और Banking की होड़ लगी पड़ी है । हर गली, हर शहर में कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आ चुकी है। अब  सवाल यह  उठता है—क्या कोचिंग करना उनकी आवश्यकता है, मजबूरी है, या यह समाज का मानसिक दबाव बन चुका है? क्या आत्मविश्वास की कमी उन्हें कोचिंग की ओर धकेलती है, या सरकारी नौकरी पाने की होड़ ने यह रास्ता दिखाया है?

आइए, इन सवालों के उत्तर तलाशते हैं।

1. क्या आत्मविश्वास की कमी कोचिंग का कारण है?

कई बार यह देखा गया है कि छात्र अपने खुद के दम पर पढ़ाई करने में संकोच करते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वह कोचिंग नहीं करेंगे तो प्रतियोगिता में पीछे रह जाएंगे। यह सोच बहुत हद तक समाज और आसपास के माहौल से उपजती है। जब हर कोई कोचिंग कर रहा होता है, तो आत्म-विश्वास डगमगाने लगता है।
हालाँकि, यह कहना पूरी तरह सही नहीं होगा कि आत्मविश्वास की कमी ही एकमात्र कारण है। असल में कई छात्रों को मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, और कोचिंग इसे आसान बना देती है।

2. कोचिंग करना क्या उनकी मजबूरी है?

भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्कूली शिक्षा अक्सर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए पर्याप्त नहीं होती। ऐसे में कोचिंग एक "सपोर्ट सिस्टम" बनकर उभरता है।
विशेष रूप से ग्रामीण या छोटे शहरों के विद्यार्थी, जहाँ अच्छे शिक्षक या संसाधन नहीं होते, उन्हें बेहतर दिशा देने के लिए कोचिंग की ज़रूरत पड़ती है। यह एक प्रकार की मजबूरी बन जाती है, खासकर तब जब परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर भविष्य की उम्मीदों पर टिकी होती है।

3. 🧠 क्या कोचिंग छात्रों पर मानसिक दबाव डालता है?

हां, बिल्कुल। कोचिंग की दुनिया में प्रवेश करते ही छात्र एक दौड़ का हिस्सा बन जाते हैं। सुबह से शाम तक की कक्षाएं, टेस्ट सीरीज़, रैंकिंग, और निरंतर प्रतिस्पर्धा उन्हें थका देती है।
कई बार यह मानसिक दबाव इतना अधिक हो जाता है कि छात्र डिप्रेशन, तनाव और आत्म-संदेह का शिकार हो जाते हैं।
पैरेंट्स और समाज की उम्मीदें भी इस दबाव को और बढ़ा देती हैं। “किसी भी हालत में नौकरी चाहिए” का भाव छात्रों पर भारी पड़ता है।

4. क्या सरकारी नौकरी पाने की जरूरत इतनी अनिवार्य है?

भारत में आज भी सरकारी नौकरी को स्थिरता, सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। खासकर मध्यम और निम्नवर्गीय परिवारों के लिए यह एक सपने जैसी होती है।
इसलिए, छात्र किसी भी कीमत पर इसे पाना चाहते हैं। यही कारण है कि वे कोचिंग, प्रयास, और बार-बार की असफलताओं के बावजूद हार नहीं मानते।
हालाँकि, यह सोच धीरे-धीरे बदल रही है, लेकिन अब भी एक बड़ा वर्ग है जो सरकारी नौकरी को ही एकमात्र विकल्प मानता है।

🧾निष्कर्ष:

कोचिंग करना न तो केवल आत्मविश्वास की कमी है, न ही यह पूरी तरह से विकल्पहीन मजबूरी। यह एक मिश्रित स्थिति है—जहाँ छात्रों को मार्गदर्शन की आवश्यकता है, सिस्टम की खामियाँ हैं, और सामाजिक अपेक्षाओं का बोझ भी है। कोचिंग की दुनिया केवल छात्रों की असफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा सामाजिक परिदृश्य है जहाँ मार्गदर्शन, मानसिक दबाव और उम्मीदें सब एक साथ चलते हैं।
हमें ज़रूरत है एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की, जहाँ स्कूल ही बच्चों को इतनी सक्षम बना सकें कि उन्हें अलग से कोचिंग की ज़रूरत न पड़े।
साथ ही, यह भी जरूरी है कि हम छात्रों को यह समझाएँ कि सफलता के रास्ते सिर्फ सरकारी नौकरी से होकर नहीं जाते। आत्मनिर्भरता, स्किल डेवलपमेंट और आत्मविश्वास भी करियर के मजबूत स्तंभ हो सकते हैं। हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों को सिर्फ कोचिंग नहीं, बल्कि आत्मबल, कौशल और विकल्पों की जानकारी भी दें।

📣आप क्या सोचते हैं?

 क्या कोचिंग एक विकल्प है या व्यवस्था की विफलता? क्या कोचिंग वास्तव में आवश्यक है या यह सिर्फ समाज का एक प्रेशर है? अपने विचार नीचे कमेंट में साझा करें।


टिप्पणियाँ