देश में शिक्षा: शिक्षा या व्यापार ?
देश में शिक्षा: शिक्षा या व्यापार?
भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में शिक्षा को सदियों से एक महान संस्कार के रूप में देखा गया है। प्राचीन गुरुकुल परंपरा से लेकर आधुनिक विश्वविद्यालयों तक, शिक्षा को समाज के निर्माण का मूल स्तंभ माना गया है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में जब हम चारों ओर नजर डालते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या आज की शिक्षा वास्तव में शिक्षा रह गई है या फिर एक लाभकारी व्यापार बन गई है?
शिक्षा का मूल उद्देश्य
शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान देना नहीं है, बल्कि एक अच्छे नागरिक का निर्माण करना है जो समाज के प्रति उत्तरदायी हो, नैतिक मूल्यों से संपन्न हो और जीवन की चुनौतियों का सामना आत्मविश्वास से कर सके। यह वह साधन है जो किसी भी देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है। लेकिन जब शिक्षा को लाभ कमाने का साधन बना दिया जाता है, तब इसका मूल उद्देश्य कहीं खो जाता है।
शिक्षा व्यवस्था में व्यवसायीकरण की प्रवृत्ति
आज के दौर में निजी स्कूलों, कोचिंग संस्थानों और विश्वविद्यालयों की बढ़ती संख्या इस बात का संकेत है कि शिक्षा अब एक बड़े बाजार का हिस्सा बन चुकी है। बड़े-बड़े शहरों में ऐसे स्कूल खुल गए हैं जिनकी फीस लाखों में है, लेकिन गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं। प्रवेश परीक्षाओं के नाम पर कोचिंग सेंटर विद्यार्थियों से मोटी रकम वसूलते हैं, और अभिभावक मजबूरी में इस दौड़ में अपने बच्चों को शामिल करते हैं।
यहां तक कि सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की गुणवत्ता में गिरावट के कारण आम लोगों का भरोसा भी टूटता जा रहा है, जिससे निजी संस्थानों की मांग और बढ़ जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षा एक सेवा नहीं, बल्कि उत्पाद बन गई है, जिसे बेचा और खरीदा जा रहा है।
डिग्री का महत्व, ज्ञान का ह्रास
आज की शिक्षा प्रणाली में डिग्री प्राप्त करना ही सबसे बड़ा उद्देश्य बन गया है। विद्यार्थी विषय की गहराई में जाए बिना केवल अच्छे अंकों के पीछे भाग रहे हैं, और संस्थान केवल डिग्री बांटने की फैक्ट्री बनते जा रहे हैं। नतीजतन, कई बार डिग्री तो मिल जाती है लेकिन व्यावहारिक ज्ञान और कौशल का अभाव रह जाता है।
कॉलेज प्लेसमेंट और सैलरी पैकेज अब शिक्षा के मापदंड बन गए हैं। शिक्षक और संस्थान भी इसी प्रतिस्पर्धा में लगे हैं कि कौन सबसे ज्यादा प्लेसमेंट दिला सकता है, न कि कौन सबसे अच्छा इंसान या जिम्मेदार नागरिक तैयार कर सकता है।
शिक्षक: गुरु से मैनेजर तक
शिक्षक को हमारे समाज में भगवान तुल्य माना गया है। लेकिन आज कई निजी संस्थानों में शिक्षक एक कर्मचारी भर बन गए हैं, जिनसे केवल रिजल्ट की अपेक्षा की जाती है। उन पर छात्रों को संतुष्ट रखने और अभिभावकों को प्रभावित करने का दबाव होता है। इससे शिक्षण कार्य की आत्मा ही प्रभावित होती है।
वहीं दूसरी ओर, योग्य शिक्षक सरकारी पदों के लिए वर्षों तक प्रतियोगी परीक्षाओं की दौड़ में लगे रहते हैं, और जब तक पद मिलता है, तब तक वे भी इस प्रणाली में थक चुके होते हैं।
समाधान की दिशा में
शिक्षा को पुनः शिक्षा बनाने के लिए आवश्यक है कि हम इसकी जड़ों को मजबूत करें। सबसे पहले, सरकारी शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता और पहुँच को बेहतर बनाना होगा ताकि हर वर्ग के बच्चों को समान अवसर मिल सके। शिक्षक चयन और प्रशिक्षण की प्रक्रिया को पारदर्शी और गुणवत्तापूर्ण बनाना जरूरी है।
शिक्षा नीति को व्यावसायिक नहीं, नैतिक और सामाजिक मूल्यों पर आधारित बनाया जाना चाहिए। शिक्षा में व्यवसाय का स्थान होना चाहिए, लेकिन वह सेवा की भावना से प्रेरित होना चाहिए, न कि केवल लाभ कमाने की लालसा से।
निष्कर्ष
शिक्षा किसी समाज का दर्पण होती है। यदि वह केवल व्यापार बन जाए, तो समाज भी धीरे-धीरे अपनी नैतिकता खो देता है। इसलिए आज के दौर में यह जरूरी है कि हम शिक्षा को पुनः उसके मूल उद्देश्य की ओर लौटाएं – ज्ञान, चरित्र और समर्पण की भावना के साथ।
जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि शिक्षा केवल किताबों की बात नहीं, बल्कि जीवन को दिशा देने की प्रक्रिया है, तब तक यह व्यापार बनती जाएगी और हम अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। इसीलिए अब समय आ गया है कि हम इस प्रश्न को केवल पूछें नहीं, बल्कि इसका उत्तर खोजने और उसे लागू करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाएं।
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